नहीं चाहती बेटी..
नहीं चाहती बेटी..
हां हां
नहीं चाहती मैं
एक बेटी की माँ बनना
हां मैं चाहती हूँ
एक होनहार बेटा
नैतिक, अनुशासित
हां मैं नहीं चाहती
बेटी की हंसी का गुलाल
रंग दे मेरा जीवन,
क्योंकि
बहुत पसंद हैं मुझे बेटियाँ
गुड़िया सी बेटियाँ
भर देती हैं रौनक
घर भर में
रुनझुन चलती हैं
आंगन में
बेटे जितनी ही जरूरी
होती हैं बेटियाँ
लेकिन फिर भी
मैं नहीं चाहती
जन्मना बेटियाँ
क्योंकि
बहुत पसंद हैं मुझे बेटियाँ
दबा लुंगी मैं मन के भीतर
बेटी की
गर्वीली माँ बनने की
आकांक्षा
मार लुंगी इच्छा
अपने जैसी एक कृति को
जीवन देकर जग में लाने की
रंगीन रबरबैंड,
सजीले हेयर क्लिप्स
मनभावन फ्रॉक
मीठी बोली
और बुढ़ापे की अपनी सहेली
हां हां नहीं चाहुंगी मैं ये सब
क्यों कि
बहुत पसंद हैं मुझे बेटियाँ
और इसलिए
नहीं लाना चाहती मैं
उसे इस घिनौने संसार में
जहाँ बहुधा आज भी
स्त्री भोग की वस्तु है
जहाँ उसकी उम्र का भी
लिहाज नहीं किया जाता
जहाँ पूरे कपड़ों में भी निगाहें
बदन को स्कैन करती नजर आती हैं
जहाँ आज भी दफ्तर घर भीतर
सम्मान के लिये संघर्ष करना पड़ता है
जहाँ घूमते हैं खुलेआम नर पिशाच
जो द्वापर - त्रेता के राक्षसों
से भी ज्यादा भयानक हैं
जहाँ नपुंसक समाज
दोषी को नहीं
स्त्री को चुप रह जाने को कहता है
और
जहाँ स्वतंत्र स्त्री को स्वच्छंद स्त्री
का तमगा दे दिया जाता है..
जहाँ शोषक नहीं
अपितु शोषित का ही
पुनः पुनः शोषण होता रहता है..
कहाँ कहाँ जाउंगी साथ
घर बाहर स्कूल?
क्या कहा? बेटी को जन्म दूँ
और सक्षम बनाऊं?
इन सबसे लड़कर आगे बढ़ने के लिए?
ज़नाब!
उस आठ महीने की बच्ची
की माँ से कहिए जाकर
क्यों नहीं सक्षम बनाया उसने
अपनी आठ महीने की बेटी को...
नहीं नहीं
नहीं चाहती मैं बेटी की माँ बनना।