नदी की आत्मकथा
नदी की आत्मकथा
माँ जैसा स्वरूप है
नदी का भी वही रूप है
प्राकृतिक के तीन आधार
जो हवा नदी और धूप है
कल कल करके बहती जाये
छम छम करके हँसती जाये
कुछ आफत भी आये तो
हँसते हँसते सहती जाये
ये ना कोई मुल्क को समझे
ये ना कोई देश को जाने
जो आये उसे गोद मे लेती
ये ना कोई भेष को जाने
निर्मल निश्छल लगती है ये
हर दम आगे बढ़ती जाये
रुकना नाम कभी ना जाने
दिन रात बस जगती है ये
सूरज उठ कर करे नमन
लहरों को भी चूमे पवन
कचरा मानव डाल
कर रहा है उसका दमन।
