नदी हूँ मैं बहती जाती हूँ
नदी हूँ मैं बहती जाती हूँ
पर्वतों की किसी चोटी से निकलकर,
पतली सी लहर पहाड़ों में बिखरकर।
अपना रूप लेती हूँ अक्सर चट्टानों से टकराकर,
मैं बढ़ती जाती हूँ खुद को मज़बूत बनाकर।
मैं सतत निरन्तर सी सबकी प्यास बुझाती हूँ,
मैं प्रकृति का हिस्सा हूँ, मानव द्वारा पूजी जाती हूँ।
बरफानी घाटियों में मेरा उद्गम समाया है,
समुद्र की लहरों में मैं ने खुद को छुपाया है।
तपती धरा की हर पल मैं प्यास बुझाती हूँ,
क्रोध में आऊँ तो जल प्रलय दिखाती हूँ।
समझ समझ का फेर है मैं माँ भी कहलाती हूँ,
प्रेम समर्पण दान का मैं भाव सिखाती हूँ।
सरिता, क्षिप्रा, तटिनी नामों से जानी जाती हूँ
नदी हूँ सदा ही मैं बहती जाती हूँ।
