नदी और लड़की
नदी और लड़की
नदी और लड़की, एक सी होती है।
दोनों को प्रवाह के लिए
संघर्ष करना पड़ता है....
नदी जब उतरती है पहाड़ो से
किसी चट्टान से टकरा कर
काँच सी बिखर जाती है
फिर समेटती है खुद को,
और आगे बढ़ जाती है...
लड़की जब तलाशती है अपना वजूद
बाहर की दुनिया में कदम रखती है,
उसके सपनें को तोड़ने को आकुल होते है..
अपने ही परिवार के कुछ लोग कभी बॉस,कभी सहकर्मी,
मगर वो हारती नही.....
शालीनता और विवेक से के अपना मार्ग प्रशस्त करती है|
नदी की प्रवाह रोकने को खड़े झाड़ ,झंखाड़ ,कानन ...
वह अनदेखा करके आगे बढ़ जाती है।
लड़की की गति रोकने को है बंदिशें, कई बेड़ियाँ ....
कुछ खोखली परंपराएं ,कुछ रूढ़ियाँ ,
कलुषित विचार, हजारों जोड़ी घूरती आँखें,
लड़की सहमती है ,अपने को मजबूत करती है ...
अनदेखा कर आगे बढ़ जाती है|
नदी प्रीत लुटाती है खेतों पर, फसलों पर,
अल्हड़ अठखेलियां करती आगे बढ़ जाती है।
लड़की प्यार लुटाती है माता -पिता, भाई-बहनों ,सखियों पर,
फिर ब्याह के बंधन में बंध चल देती है अनजाने घर|
नदी गुजरती है किसी शहर के किनारे से ,
फैक्ट्रियों के कचरे ,नाले और गटर से हो जाती है मैली,
खोने देती है अपनी निर्मल स्वरूप,
शीतल प्रवाहिता का मन क्रोध से तप उठता है|
वह क्षीणकाय होने लगती है
या सूख जाती है ,बचता है सिर्फ रेत|
लड़की अनजाने घर को अपना बनाने में ,
लगा देती है जी जान।
कभी ताने सुनती है ,कभी होती है हिंसा का शिकार|
खो देती है अपनी मासूमित,अपनी कोमलता,
फिर भी बाध्य है वो बचाए रखने को दोनों कुल की लाज|
लड़की हार नहीं मानती....
इन सबके बीच ढूंढ़ लेती है उड़ने को आकाश ...
बना लेती है अपने कुछ सपने को जीने का आधार।
अपने संकल्प शक्ति से पाती है मुकाम और मान|
निरझरी मदद के लिए पुकारती है मेघ को ...
वो बरसा कर अपना स्नेह ,बंधाता है ढाढ़स ,
नदी को फिर कर देता है निर्मल पावन।
सरिता पहुँती है किसी तीर्थ तक..आचमन का जल बन, देवों का करती अभिषेक।
नदी का एक लक्ष्य है, सागर तक पहुंचना।
नदी इसलिए फिर चल पड़ती है .....
हां ! नदी और लड़की एक जैसी होती है।