नाटक
नाटक
औरत हूँ मैं कोई कठपुतली नहीं,
जीना चाहती हूँ, उड़ना चाहती हूँ।
अपने सपनों को पूरा करना चाहती हूँ
है जीने का मुझे भी हक बराबर,
फिर क्यूं इतनी नाइन्साफी
खुद ही नये खेल खेलती हूँ,
खुद में ही सुलझ के उलझ जाती हूँ
नहीं हूँ मैं कोई कठपुतली,
मैं भी जीना जानती हूँ।
