न जाने क्यों...!
न जाने क्यों...!
न जाने क्यों
महसूस नहीं होती
वो गर्माहट,
इन ब्रांडेड वूलन गारमेंट्स में,
जो होती थी
दिन-रात, उलटे-सीधे
फन्दों से बुनें हुए स्वेटर और शाल में;
आते है याद अक्सर
वो जाड़े की छुट्टियों में
दोपहर के आँगन के सीन,
पिघलने को रखा नारियल का तेल,
पकने को रखा
लाल मिर्ची का अचार,
कुछ मटर छीलती,
कुछ स्वेटर बुनती,
कुछ धूप खाती
और
कुछ को कुछ भी काम नहीं वाली
आंटीस, भाभीस, दादिस;
अब आता है समझ
क्यों हंसा करती थी
कुछ भाभियाँ,
चुभा-चुभा कर सलाइयों की नोंक
इधर-उधर ,
स्वेटर का नाप लेने के बहाने,
याद है
धुप के साथ-साथ
खटिया और आंटीस भी खिसकती जाती थी,
अब कहां हाथ तापने की गर्माहट,
वार्मर जो है,
अब कहां
एक-एक गरम पानी की बाल्टी का इंतजार,
इंस्टेंट गीजर जो है,
अब कहां
खजूर-मूंगफली-गजक का कॉम्बिनेशन,
रम विथ हॉट वाटर जो है।
सर्दियाँ तब भी थी
जो बेहद कठिनाइयों से कटती थी,
सर्दियाँ आज भी है,
जो आसानियों से गुजर जाती है;
फिर भी
वो ही जाड़े बहुत मिस करते है,
बहुत याद आते है...!
