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Manabi Bacher Katoch

Tragedy

4  

Manabi Bacher Katoch

Tragedy

मज़दूर हूँ, मजबूर नहीं!

मज़दूर हूँ, मजबूर नहीं!

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मज़दूर हूँ, मजबूर नहीं

अक्सर ये कहता था

दिन भर खट कर

धूप में चल कर नमक-रोटी

तो कमा ही लेता था


इसके बच्चों की ज़िद भी

हफ्ते में एक बार,

बस एक बार दाल चखने से

ज़्यादा न होती थी

ये ख़्वाहिश भी पूरी करता

जिस दिन मालिक खुशी से

10 रुपये ज़्यादा देता था

मज़दूर हूँ, मजबूर नहीं

यही सोच खुश रहता था।


बीवी ने एक बार कहा था

सुनो जी, अब के खीर खाने को

जी करता है

मुन्ने के वक़्त गुड़ की डली

चूस चूस रह गयी

पर इस बार न जी बहलता है।

चीनी, घी थोड़ी जो लाओ,

छटाक भर खीर बना लूंगी,

बच्चों को भी थोड़ा-थोड़ा चटाकर

स्वाद इसका बता दूंगी।

कहो तो लल्ली की माँ से थोड़ा

उधार ले आऊंगी।

तपाक से उठा, लपाक से दौड़ा,

पत्थर तोड़े, सड़के बनाई,

शौचालय तक साफ किये,

रात लौटा घी, चावल,

चीनी सब साथ लिए।

कमर टूटी पर स्वाभिमान नहीं,

मज़दूर हूँ, मजबूर नहीं

एक बार फिर साबित की बात यही।


फिर इक दिन इक अनहोनी घटी,

हाहाकार चारों ओर हुआ।

महामारी के डर से काम-धाम

सब साफ हुआ,

रोटी रोटी, पानी पानी हर चीज़ को

वो तरसता था,

खुद रह लेता पर बच्चों की भूख

कैसे सह सकता था?


खड़ा हुआ कतारों में

एक रोटी लेने को हाथ फैलाये,

सर झुकाये अब वो घुट घुट रोता है।

मज़दूर हूँ.... मजबूर भी हूँ,

आँसू दबाए ये कहता है!



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