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N.ksahu0007 @writer

Abstract

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N.ksahu0007 @writer

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मुख़ौटा_ओढ़कर

मुख़ौटा_ओढ़कर

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रोज-रोज मेरे सपनों में, तुम आने लगी थी।

नये-नये ख़्वाब , ख़्वाबो में सजाने लगी थी।।


मुख़ौटा ओढ़कर करीब आना हुआ उनका 

ना जाने क्यू इश्क़ मेरा आज़माने लगी थी।।


मुख़ौटे पे मुख़ौटा लगाकर दिया धोख़ा ही

फिर नया मुख़ौटा लगा हमे मनाने लगी थी।।


जान चुके थे जाँ किया नही था प्यार हमसे

आड़ मुख़ौटे का लेकर हमे रुलाने लगी थी।।


हर बात भुलाकर संग उनके बढ़ने लगा था।

पर वो तो मुख़ौटे पे मुख़ौटा चढ़ाने लगी थी।।



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