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Vijay Kumar parashar "साखी"

Abstract

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Vijay Kumar parashar "साखी"

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मुझे छोड़ दो

मुझे छोड़ दो

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दम घुटता है,मेरा

होशियारो की बस्ती में

मुझे छोड़ दो,तुम

पागलों की बस्ती में


दिमाग़ जहां नही होता है

दिल ही जहां जिंदा होता है

मुझे छोड़ दो,तुम

ऐसे दिलवालों की बस्ती में

दम घुटता है,मेरा

होशियारों की बस्ती में


स्वार्थी विचारो,

स्वार्थी आचारों से

जलती है रूह मेरी

मुझे छोड़ दो,तुम

निःस्वार्थी लोगो की बस्ती में

दम घुटता है मेरा

होशियारों की बस्ती में


इस माटी के गुनहगार

असत्य के चमत्कार

उन लोगो से मुझे दूर ही रखो

मुझे छोड़ दो,तुम

सत्य को तरसती बस्ती में

दम घुटता है मेरा

होशियारों की बस्ती में


रातों को नींद नही आती है

उजाले से आंख जल जाती है

रोता है दिल का जुगनू मेरा

तड़पता है रूह का मेरा सवेरा

मुझे छोड़ दो,तुम

अंधेरे में छिपी हुई

उजाले की कश्ती में


दरिया गम का बहुत बड़ा है मेरा

हर शख़्स ही यहां कातिल है मेरा

मुझे छोड़ दो,तुम

हक़ीक़त से डरी हुई गृहस्थी में

दम घुटता है मेरा

होशियारों की बस्ती में


सपने मेरे टूटे है

अपने मुझसे रूठे है

फूल की जगह 

मुझे शूल मिलेंगे

में ढूंढ रहा हूं,साहिल

पापियों की बस्ती में

दम घुटता है मेरा

होशियारों की बस्ती में


आज हर तरफ गीदड़ बैठे है

शेर को भी चूहे ललकार बैठे है

पर में हार नही मानुगा 

मुझे छोड़ दो,तुम

चाहे जहन्नुम की भट्टी में


पाप आज प्रबल है

सत्य आज निर्बल है

फ़िर भी सत्य पर चलूंगा

सत्य को ही में शिव करूँगा

सत्य बसा है मेरी रग रग में

मुझे छोड़ दो,तुम

सुर्ख अमावस की बस्ती में

दम घुटता है मेरा

होशियारों की बस्ती में


 
















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