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Vikash Kumar

Abstract

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Vikash Kumar

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(मृगतृष्णा)

(मृगतृष्णा)

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कलम उठाकर हमने जाना, फिर कोई आह उठी होगी,

कहीं जमी दहकी होगी, कहीं नज़र बहकी होगी,



अंजुली भरभर सुधा रस पीया, खड़ा हिमालय अतृप्त रहा,

मिलकर बिछड़े तब ये जाना, ना मिलना उपयुक्त हुआ,

मेरे पग पर पग मत धरना, मुझसे मेरी बात न करना,

मेरी मृगतृष्णा के खातिर, अपने होठ की प्यास न रखना।

जाग गया हूँ अब मैं फिर से, कहीं आँख सोई होगी,

कहीं जमीन दहकी होगी, कहीं नजर बहकी होगी।


रोने वाले दर्द लिखेंगे, बरसातों को व्यर्थ लिखेंगे,

पलभर की खुशियों के खातिर, सपनों को भी अर्थ लिखेंगे,

तुम फिर भी मायूस ना होना, धूप सरीखी खिलते रहना,

नदियाँ मांझी कंकर पत्थर, जीवन कुसुमित फलते रहना,

मेरा मिलना प्रकृति शाश्वत, नदी सिंधु तक जाएगी ही,

एक तृष्णा है मेरे भीतर, प्यास तृप्ति तक लाएगी ही।


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