Sony Tripathi

Abstract

4.0  

Sony Tripathi

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मृग मरीचिका

मृग मरीचिका

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चले थे जहाँ से हम।

खड़ा पाया खुद को आज भी वही।।

जिस प्यार को समझा अविरल निझर्रणी।

वह तो रास्ते की मृग मरीचिका निकली।।

जितना आगे बढ़े राह भटकते गए ।

राह के पत्थर को समझ बैठे मंजिल ।।

ढोकर लगी तो टूटा सपना।

पाया वीरान जंगल में तन्हा।।

सारी ख्वाहिशें हो गई फ़ना।

अपनापन मात्र छलावा था।।

प्यासी थी, प्यासी ही रह गई ।

तन्हा इस सफर में।।



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