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Vivek Madhukar

Abstract

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Vivek Madhukar

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मोक्ष

मोक्ष

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भयाक्रांत थे तुम !

क्या कहा

मदांध थे !

तब तो लाजिमी था कि

तुम्हारे द्वारा उठाया हर कदम

गलत हो


भय और मद

दोनों अचेतन अवस्थाएं हैं

मन की

भय से कांपते हुए

कल्पना कर ली तुमने

नर्क की,

मद में चूर ह्रदय

विचरने लगा

स्वर्ग के उद्यान में


वस्तुतः

न कहीं नर्क है,

और न ही स्वर्ग;

दोनों अस्वस्थ मन की भ्रांतियां हैं,

सुप्त मन की कोरी कल्पनाएँ


ख्वाब नहीं देख रहे होते तुम जब,

जाग रहो होते हो तुम जब

अंतर्मन से

पाते हो कि

नहीं कहीं कोई

स्वर्ग या नर्क

सिर्फ ज़िंदगी,

जीवन्तता

और एक अंतहीन सफर;

क्या यही नहीं मोक्ष !


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