मन की पीर
मन की पीर
झूठ की मुस्कान ओढ़े
छुप रही आँखों में पीर।
रोकती भावों के बंध
बह रहा नयनों से नीर।
कह रही धड़कन पुरानी
याद आई कोई बात।
सोचती हूँ मौन बैठी
क्यों ढली वो काली रात।
ढूँढती तारे आकास
फिर हुआ है हृदय अधीर।
रोकती भावों....
टूट जब डाली गिरे फिर
कब खिले थे फूल पलाश।
चीखकर अम्बर कहे फिर
दिन नहीं आता वो काश।
रूठकर आँखों से नींद
खो रही अब अपना धीर।
रोकती भावों.....
भीत घर की बोलती है
लौट आए दिन वो आज।
जिस तरह पहले किया था
फिर करो आकर तुम राज।
घाव अब कैसे भरेंगे
काल ने जो मारे तीर।
रोकती भावों.....
