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Shatakshi Sarswat

Abstract Others

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Shatakshi Sarswat

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मन कि लहरें

मन कि लहरें

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दुनिया से ठोकर खा कर मुँह मोड़ा,

तो खुद से था जोड़ा,

पर अकेलेपन कि लहरों में

फिसल गया पाँव मेरा,

डूबते-डूबते फिर तैरना था सिखा,

उस किनारे कि आस में जो

बस एक भ्रम मात्र था मेरा।


धीरे-धीरे मन कि लहरों में

बवंडर सा बन रहा था मेरे,

न जाने उस वक़्त मन में

कौन सा तूफान चल रहा था मेरे,

चुप रहते-रहते फूट पड़ा वो बवंडर मेरा,

पर उसको पार करके लहरों तक

पहुँच ही नहीं सका कोई भी मेरा।


मैं कह नहीं पाती अपने छिपे तूफानों को,

पर कोई समझ भी नहीं पाता

मेरे मन की लहरों तक को,

खिल-खिला उठती हूँ अब सबके सामने,

पर आँखें साथ नहीं देती अब खुद के ही साथ में।


तो कुछ इस प्रकार है 'मेरे मन कि लहरें 

जो मेरे सिवा कोई समझ नहीं पाता।


   


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