मन के गुब्बार
मन के गुब्बार
बादलों के पार
ऊँगली में ऊँगलियों को जोड़े
चलो ना बिना वजह शून्य में
सोच से परे आह्लादित सी कोई
जगह ढूँढते हैं
दो ठंडी बियर भरे प्यालों से
टकराकर आती चीयर्स की
आवाज़ के सिवा बस सन्नाटा हो !
ना कोई आहट हो ना कोई साया
ना शोर कोई सरगम की
मौन का मेला हो जहाँ
पल जहाँ ठहरते हो
मंजूल मोतीयों की बारिश
ओर हवाओं से इत्र बरसता हो !
शक संदेह की दरारों की
गुंजाइश ना हो जहाँ
विवाद को मृत्यु शैया पर लेटाकर
होंठों पर संतोष की परत पौंछकर
चलो आस की नगरी ढूँढते हैं
रात का माथा चूमती शाम को
अलविदा कहो !
चलो चाँदनी में नहाती रात में
सफ़र करते है
हकिकत की वादियों से
निकल कर ख़्वाबों के शामियाने तले
चारपाई लगा लेती हूँ तुम बैठो
मैं तुम्हारी गोद में सर रखकर
सो जाती हूँ
मैं जितना मांगूँ तुमसे तुम आज
मुझे उतना प्यार दो !
तुम देवदूत मैं अभिसारिका
चलो ना यहाँ आसमान पर ही
सपनों की दुनिया बसाते हैं
प्याज, टमाटर ओर तू-तू,
मैं-मैं की सुर्खियों से
उब कर ले चलो ना मुझे
तुम वहाँ कुछ भी खोने
का डर ना हो जहाँ !
ये मन की अठखेलियों से
उठते गुब्बार की चरम
शृंगार है जीवन का
वास्तविकता से परे
सोच की परिधि तोड़ता ये
गुब्बार जश्न है ज़िंदगी का।
क्यूँ ना आँखें मूँद कर
मना कर देखें।
