STORYMIRROR

Vijay Kumar उपनाम "साखी"

Abstract

4  

Vijay Kumar उपनाम "साखी"

Abstract

मन का कचरा

मन का कचरा

1 min
23.4K


कूड़ा-करकट हर तरफ फैला है

ज़मीन पर भी,दिल के अंदर भी

ये कचरा आबोहवा में घुल गया है

हमारी सांसों में भी,आसपास भी


हर युग मे ये कचरा अविराम फैला है

पहले था ये कभी,अब है ये सभी

पहले रावण, कौरव, कंस के दिल में था,

आज सबके दिल मे ये घर कर बैठा है


सब इस धरती को मां कहते हैं

कचरा इस पर ही फेंकते रहते हैं

फिऱ भी धरती माँ सहन कर रही है

हृदय-गंदगी से, भू-तन भारी हो बैठा है


धरती की इस गंदगी से पहले,

खुद के मन की गंदगी साफ करो

हमारे मन की सफाई से,

वो बंद चराग़ हृदय का जल बैठा है।


Rate this content
Log in

Similar hindi poem from Abstract