मजबूर आदमी
मजबूर आदमी
अजीब सी जिंदगी
हो गई है मेरी,
कुछ चैन
थोड़ा सुकून छिन्न गया है,
जिंदगी जीने के लिए
क्या क्या जतन नहीं करते
किसी के आगे जी हजूरी
भ्रष्ट बेईमानों के साए में जीना पड़ता है,
ईमान की नहीं
यहां परवाह किसी को
दोगलों से बच के रहना पड़ता है,
लुटेरे घूमते हैं
यहां सब नकाबों में
इज्जत अपनी खुद
बचा के चलना पड़ता है,
अलग राह बना ली अगर हमने
फिर जिंदगी के
लिए भी दुआ करना पड़ता है,
यहां बस
भागते रहते हैं हम
जिंदगी की जद्दोजहद में
सुबह से शाम तक,
चंद खुशियों के खातिर
खुशियों को अपनी
दांव पर लगाना पड़ता है,
मजबूर आदमी हैं हम यहां
इस भीड़ भरी महफ़िल में
मजबूरी में ही हमे जीना पड़ता है।