मिट्टी - मेरे अनमोल रत्न
मिट्टी - मेरे अनमोल रत्न
(१) मै हूं एक कुम्हार,
जो मिट्टी के रचना कार ।
चक्की पर गोल घुमा घुमा कर,
पहनाता हूं उसको सुंदर हार ।।
(२) जिस तरह से मिट्टी की विकार को,
निकाल फेकता हूं बाहर ।
वैसे ही अपनी पेट की पीड़ा को,
रखता मै कही दूर हूं बाहर ।।
(३) हमने भी कुछ सपने,
बुन कर रखे थे मिट्टी के संग ।
सुखद जीवन की आस में,
लड़ रहे हैं बाजारों में जाकर जंग ।।
(४) मैं पिलाता हूं सबको,
शीतल सुराही की जल ।
तप रहा हमारा पूरा अंग,
हृदय मेरा असीतल पल पल ।।
(५) हम कुम्हारों की यहां कीमत शून्य,
सवारने में लगा हूं अपनी बच्चों की कल ।
बड़े विचार बड़ी सोच बड़ी उम्मीदों,
के संग चल रहा हूं हरपल ।।
(६) मेरी मेहनत की कोई मोल नहीं,
कोई रंग नहीं मेरे जीवन का ।
मेरी मिट्टी की इस क्ला कोई मान नहीं,
गरीबी जंग बनी मेरी जीवन का ।।
(७) एक वस्त्र मटमैला सा धोती में,
निहारता इस दुनिया की रंगमंच को ।
मैं हाथ जोड़कर विनती करता,
छिति,जल,पावक,गगन,समीरा इस पंच को ।।
(८) हर मेरी पीड़ा को,
हे जल! भीगा कर
मुझको अपनी जल से कर
दे पावन जीवन तू मेरा ।
हे पावक! मुझे अपनी आगोश में करले,
कर स्वीकार जीवन तू मेरा ।।
