मिलन - ए- ज़िन्दगी
मिलन - ए- ज़िन्दगी
कैसे हो गई मैं तुम्हारे पैरों की धूल,
जो तुम देते हो मेरे प्रत्येंगो को शूल।
तुम्हीं तो कहते थे...
तुम हो मेरी प्रिया,
हूं मैं तुम्हारा प्रियतम
तुम्हीं रहोगी मेरी इष्टतम!
थी मेरी भी यही आरजू,
तो अब कैसे ठहराते हो बाजारु।
ये कैसी फितरत है बरखुदार,
मानते तो हो ख़ुद को समझदार,
बेच आए अपनी लज्जत मीना बाज़ार
तो कैसे हुए मेरे हकदार !
तुम्हारी हर ख्वाहिश है बेकार ,
मुझे अब समझो ना लाचार !
जो तुम आए हो ऋजुता की चादर तान कर,
तो हम भी खड़े है आन पर !
तेरी हो जाऊँ? ...ये मेरी रूह को गवारा नहीं,
तुमने तो अपनी मोहब्बत को संवारा नहीं,
तो मुझे भी अब तुम्हारा सहारा नहीं !
मेरी जिस्म ने अभी ज़िन्दगी की दौड़ को हारा नहीं,
पर ये दिल....
दिल दे बैठे ये गलती दोबारा नहीं ।
मैंने भी इंसानों को पहचान लिया है,
उनके अभिलाषाओं को जान लिया है,
इसीलिए तो ठान लिया है...
पतझड़ सी ज़िंदगी में ,
उत्कंठाओ को दफनाकर ,
बसन्त लाना है,
खोया हुआ आत्मसम्मान लौटाना है ,
ज़िन्दगी को ज़िन्दगी से मिलाना है।
हम किसी के सहारे नहीं,
किसी को हमारा सहारा ...ऐसा बनाना है !
ज़िंदगी को इस काबिल बनाना है...
इस काबिल बनाना है!!!
