महाबलिदान
महाबलिदान
उन्नति के मन मंदिर में
कर्म मार्ग के भीतर तन से
हाथ पैर के फिर नर्तन से
मांगे उछले बन चंचल
भीड़ से उठती आवाज़े अब
आवाज़ो में इच्छाएं सब
दूर से ही लगता सुनाई
राग शुभ सा एक वत्सल
ईंट ईंट क्या हर ढांचे से
लटके घंटे इस मंदिर के
बरबस हर हाथों से छुये
गूंज जाए दिल हलचल
रुका हुआ सा अब समाज यह
आँख टकटकी कर्म के पथ पे
दिव्य नाद है डम डम डम डम
स्वर स्वराज बढ़ता हर पल
शुरू हुआ जो आज विधान
फिर करता है एक आह्वान
फिर से जी उठा यह स्थल
चाहता एक ऐसा केवल
जिसके लिये यह आस धरे हैं
एक वहीं जो बन बलवान
दुनिया की जो धार तेज़ पर
कर पायेगा महाबलिदान