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Vikramaditya Singh

Others

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Vikramaditya Singh

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आँसू और मन

आँसू और मन

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वह समय सुहावन सा था

इतना सब उनमें घटा था

कुछ हलकी सी स्मृतियों में

वह अजीब से भी पल थे


उन यादों की छाया में

जिसमें मन तिरता जाए

फिर फिर कर इधर उधर यह

कभी सिहरे कभी घबराये


छलनी हो होकर फिर से

क्यों आखिर दुःख को पीता

इन पिछली पहेलियों से

अपना ही चैन तो छिनता


कितने ऐसे मोड़ पर

चाहता नहीं जाना है ये

बीते हुई दुःख को भर

फिर से कंपकपाता है


कुछ ऐसी ही बुनती है

आड़ी तिरछी होकर के

भीतर तक धंस बनती है

यादों के साये में चुपके


हर होंठ की सिहरन जाने

आँखों की झपक भी बूझे

एक बाढ़ लिए हर दिल का

आँसुओं से मन जब उलझे


                      



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