मेरी माँ
मेरी माँ
अपने बचपन की बात करूँ क्या ?
माँ ! तुम याद बहुत आती थी।
वय-संधि की उम्र मेरी थी।
साथ तुम्हारा जब छूटा था।
घर के हर कोने-अतरे में
सिसक-सिसक तुमको ढूँढा था।
कान तरसते थे सुनने को
वो खनक तुम्हारी चूड़ी की।
छुप-छुप कर देखा करते थे
तही तुम्हारी साड़ी को।
और चौके में ढूँढा करते थे
वो तेरी मीठी पूड़ी को।
कर लेते थे सभी शिकायत
तेरी माले वाली फ़ोटो से।
अब तो बात पुरानी है माँ !
फिर भी रिसती रहती है।
अब तो मैं ख़ुद”माँ” हूँ माँ !
पर तुम याद बहुत आती हो।
माँ! तो बस “माँ” होती है
महक कहाँ उसकी जाती है।
अपनी माँ की बात लिखूँ क्या ?
माँ बस याद बहुत आती है।
