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Sankita Agrawal

Abstract Romance

3  

Sankita Agrawal

Abstract Romance

मेरी कलम

मेरी कलम

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मेरी कलम अक्सर ही

तेरी गली से गुजरती है

मेरी कलम की आदत 

जो तूने एक बार बिगाड़ी, 

अब संभले ना संभले !


सुबह को अलविदा कर, 

देर रात की आदत 

इसको जो पड़ी

तुम्हें ही लिखने ये निकल पड़ी ! 


मेरे कमरे का गेट खोल

तुम्हारा अक्स ढूँढने 

ये निकल पड़ी ! 

जब रुकी तो नजर सिर्फ 

तुम्हारी खिड़की पर पड़ी,

 जो काफी वक्त से

बंद है पड़ी ! 


खिड़की के सामने लटके

विंग चैन पर खूब पत्थर फेंके 

ढेर सारे खत्त लिखे

पर खामोशी ही कानों मे पड़ी ! 


ना तुमने खिड़की खोली 

ना ही तुमने चिट्ठी पढ़ी 

वो कागज के शब्दों को भी 

मायूसी ही हाथ पड़ी ! 


जब मेरी कलम 

तुम्हारी गली से गुजरी

तुम्हारी नामौजूदगी पाकर

उसकी स्याही फीकी पड़ी ! 


जब मेरी कलम 

तुम्हारी गली से गुजरी..

याद है, मुझे 

कैसे उस गली का चॉंद 

मुझे देख मुस्कुराता था,

हर रात को छत पर 

आसमॉं के चॉंद से बतियाने 

मेरे लिए चला आता था ! 


याद है मुझे 

उसका दुपट्टा क्यों बार-बार 

छत पर सूखने चला आता था,

दूर से ही इश्क फरमाने के लिए

उसका दिल भी जो मचल जाता था ! 


याद है मुझे 

कैसे गली के 

लोगों की नजरों से बचकर 

मैं तुझसे मिलने चला आता था,

खाली कागज की रेखाओं में 

अपने दिल की बात लिखकर 

तुझे खुद को गिरवी दे जाता था ! 


याद है मुझे 

कैसे तू मेरी गली को 

यूँ ही अक्सर अपनी गली 

समझ चली आती थी, 

एकतरफा प्यार थोड़ी है हमारा

पूरी दुनिया को दबी आवाज में 

बता जाती थी ! 


याद है मुझे 

कैसे तेरी गली के 

हर मोड़ पर 

हमारी इश्क की

दास्तान लिखी गयी थी,

प्यार की हवा में लिपटी 

उस कहानी ने हम दोनों को 

नई जिंदगी दी थी ! 


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