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Zuhair abbas

Abstract

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Zuhair abbas

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मेरा कूसूर

मेरा कूसूर

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क्या बस इतना था कूसूर कि उस पर भरोसा किया

हर शह हर एहसास से ज़्यादा उसे अपना किया।


एक बार तो मेरे सवालों का जवाब मुझे दिया होता ‌

ऐसे रूख़ मोड़ कर तो ना बीच राह मे मुझे तन्हा किया होता।


माफी ना सही सज़ा ही मेरे कूसूरों कि मुझे दी होती

उम्र भर के लिए तो ना मुझसे खुद को जुदा किया होता।


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