मेरा अंतर्मन।
मेरा अंतर्मन।
रात के सन्नाटे में जब..
खामोशी छा जाती है..
दूर कहीं कोने से ..
इक आवाज़ आती है ।
देखूं यहां-वहां ..
ना आए कोई नजर..
फिर लगे कि ये तो...
बोले मेरा अंतर्मन ।
क्यों छिपाया मुझे?
क्यों दबाया मुझे?
क्यों घुट-घुट कर रहना...
सिखाया मुझे?
क्या दोष है मेरा ?
क्या बैर है मुझसे?
क्यों अपनी इच्छाओं को ..
तुम खुद नहीं समझ पाती?
क्यों सीमाओं में बांधा मुझ को?
क्यों जकड़ा समाज के झूठे रिवाजों में?
क्यों सपनों के पंखों को...
उड़ान भरने से पहले कतर दिए?
युग बदले.... दौर बदला ...
समय बदला... दुनिया बदली...
पर नहीं बदले तो केवल ...
संस्कार और सिद्धांत खोखले
जिन पर तेरी बलि चढ़ी।
क्यों खुद को तू जलाती है?
क्या मेरी आवाज़ सुन नहीं पाती है?
बस अब बहुत हुआ, उठ आगे बढ़
आवाज़ उठा... अधिकार जता।
सपनों को अपने साकार कर..
हौसलों की उड़ान भर।
अपनी भी पहचान हो
उम्मीदों पर खरी उतर।
जिन बेड़ियों में जकड़ा तुझे
उन्हें अपना शस्त्र बना।
अपने हित के लिए तुझे ही है लड़ना
ना दूसरों से आस लगा।