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SHASHIKANT SHANDILE

Abstract

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SHASHIKANT SHANDILE

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मधुशाला ........

मधुशाला ........

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मनमंदिर में उलझ गई है अल्फाजों की माला।

उलझन को सुलझाने जाता नितही मै मधुशाला ।


अल्फाजों का हो चयन जो लिख पाऊं कुछ और

लंबा अरसा गुजर गया जब लिखने का था दौर

क्याही बोलू किस तरहा से मुँह पे लगा है ताला।

उलझन को सुलझाने जाता नितही मै मधुशाला ।


दिन तो कट जाता है लेकिन व्याकुल करती रात

अपने भीतर की मै जानूं जानू मै हालात

कतरा कतरा डूबा रहा है लबों से लगता प्याला।

उलझन को सुलझाने जाता नितही मै मधुशाला ।


सुखी स्याही फटा सा कागज शब्दों की दरकार

गुण अवगुण होते देखे अब कोई नहीं तकरार

कोई कहेगा बिगड़ा हूँ मै लगता हु मतवाला।

उलझन को सुलझाने जाता नितही मै मधुशाला ।


कैसी उदासी कैसी दुविधा क्या करना विलाप

खुद से खुद का अंतरमन से करना है मिलाप

खुद से मिलने अब तनहा ही ढूंढ रहा उजाला।

उलझन को सुलझाने जाता नितही मै मधुशाला ।


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