मौन निमंत्रण
मौन निमंत्रण
मुंबई शहर की,
बड़ी-बड़ी गलियों के बीच,
एक बेहद संकरी-सी गली से,
मेरा पहली बार निकलना हुआ।
सौभाग्य कहूँ या दुर्भाग्य,
ज़िन्दगी की हकीकत से,
मेरा पहला-पहला परिचय हुआ।
सड़े-गले कीचड़,
भरे एक नाले के पास,
डेढ़-दो साल की एक बच्ची,
आधी ढकी आधी ऊगढी,
कड़कड़ाती ठण्ड में,
उस कचरे के,
डब्बे को टटोल रही थी।
मेरे क़दमों की आहट उसमें सुनी,
मेरी ओर रुख किया,
किन्तु तुरंत ही,
उसके पेट की आग ने,
उसका ध्यान अपनी ओर खींच लिया।
उसे देख मेरे ह्रदय में,
कुछ पिघलता महसूस हुआ,
मैंने अपने पर्स से,
एक दस का नोट,
उसकी और बढ़ा दिया।
उसने मेरी और देखा,
और जैसे की वह,
एक ज़िंदा मूर्ति हो,
मेरी और निहारने लगी।
पहली बार किसी की,
आँखों में इतना दर्द देखा था,
उसकी आँखों में धन्यवाद नहीं,
सिर्फ एक मौन निमंत्रण था।
जैसे कह रहीं हो,
हमें तुम अपना लो,
इस तरह धिक्कारो मत,
हम भी इंसान हैं।
हमारे भी सपने हैं,
हम बहुत ऊँचा उड़ सकते हैं,
सिर्फ, सिर्फ,
तुम्हारा हाथ चाहिए।