STORYMIRROR

Prafulla Kumar Tripathi

Abstract

3  

Prafulla Kumar Tripathi

Abstract

मैं वाणी हूँ !

मैं वाणी हूँ !

1 min
11.8K

देख लिए मैंने,

जाने कितने सूर्योदय

और कितने सूर्यास्त।

किसी ने कहा,

अब तो विश्राम कर लो,

समय के पतझर में।

लेकिन मैं -

अपनी आभा में दीप्त,

अडिग और अनवरत।

करती रही,

बहुजन हिताय और

बहुजन सुखाय का उद्घोष।


क्योंकि मैं हूँ,

आकाशवाणी

बह रही गोमती के संग साथ।

अवध की प्राणवायु बनकर,

चरैवेति चरैवेति  का

मौन पालन कर रही हूँ।

मैंने देखी हैं ,

इन्हीं आँखों से ,

दुखी और पीड़ित भारत की तस्वीर।

नवाबों की महफिलें,

गरीब की रोटी की कसक

और फिर आज़ादी के तराने।


सुनी है मैंने,

घुंघरुओं की खनक,

ठुमरी दादरे की धमक।

कभी कभी भटकती भी

फिरती रही ,

भूल भुलैया के गलियारे में,

लक्ष्मण टीला के खंडहर में।

मंदिर-मस्जिद से उठने वाली

सदायें सुनकर,

फिर फिर लौट आई हूँ मैं,

अपने अंतस की ओर।

लेकर फिर सुनहरी भोर।



Rate this content
Log in

Similar hindi poem from Abstract