मैं स्त्री जो ठहरी!..
मैं स्त्री जो ठहरी!..


मैं स्त्री जो ठहरी,
मुझे किसी बात का बुरा नहीं लगता।
ना अपने परवरिश पर,
ना अपने ख्वाहिशों को बुझने पर,
ना मेरे त्वचा के रंगों पर
ना समाज के असंवेदनशीलताओं पर,
मैं स्त्री जो ठहरी,
जूझती रहती हूं...
कभी हंसकर..कभी खामोश रहकर
स्वप्नों का गला घोंटती रहती हूं,
मगर डरती नही हूँ समाज से
हारती नही हूँ खुद से,
भले ही लोगों का संदेह खत्म न हो,
मगर चलती रहती हूं मैं,
कुदरत के दिये अद्भुत गुणों के सहारे...
क्योंकि..मैं स्त्री जो ठहरी!!..