मैं पूछ रही हूं अपने देश से !
मैं पूछ रही हूं अपने देश से !
मेरी राख़ हुई जिस्म,
ये प्रश्न देश से पूछता रहता है
उस दरिंदगी से ज्यादा
मेरे ही शुभचिंतक
कई प्रश्नों से मुझे ही,
मारते रहते हैं!
जख्म कैसा था ?
आग कैसे लगी ?
कितना चिल्लाई ?
कितना रोई?
दर्द कितना हुआ ?
जितने बार ये प्रश्न,
इस समाज में घूमता रहता है,
उस दरिंदगी से ज्यादा,
इन प्रश्नों के चक्रव्यू से;
मेरी रूह सहम जाती हैं !
अब खूब तुम सब चिल्लाओ,
कई निर्भया को,
इंसाफ दिलवाने के लिए!
परंतु, जब वे सभी बच सकती थी
उस समय तुम सबों पर,
ग्रहण लगा हुआ था!
सबको उन सबों से ज्यादा,
खुद की फिक्र थी!
किसी ने नहीं बचाया,
उनकी तड़पती जिस्म को,
जब वे सब मर गई,
जल के खाक हो गई!
चली गई जब,
इस मतलबी दुनिया से!
तब तुम सबों को,
उनकी याद आयी!
तुम सब अब ऐसे पुलिसकर्मियों पर,
खूब फूलों की बरसात किया करो!
जिन्होंने मेरे संग,
कई निर्भया को इंसाफ दिया,
उन दरिंदों का एनकाउंटर करके!
खुद को दृढ़ता से प्रमाणित किया,
शायद मेडल भी मिल जाए उन्हें,
हम जैसों को इंसाफ देने के लिए!
लेकिन, जब कई निर्भया बच सकती थी,
उस वक्त गहरी नींद में,
कई फरिश्तों संग तुम सब भी,
खुली आंखों में ही सो गए थे!
उस वक्त हमलोग,
शायद किसी की,
बेटी, बहन, इत्यादि नहीं थे ?
मेरी राख़ हुई जिस्म,
ये प्रश्न देश से पूछता रहता है !