मैं पेड़ हूॅं
मैं पेड़ हूॅं
मैं पेड़ हूं
लोग मुझे वृक्ष, तरु, पादप और क्या क्या
कहते है।
पर मैं मौन यही खड़ा हूॅं
है विभिन्न रंग-रूप मेरे
और हरियाली से भरा हूॅं
मैं पेड़ हूॅं
मानव मित्र अपना कहता है
गर्म लू के थपेड़े में छांव मेरी ही रहता।।
फिर जाने क्यों मुझे उससे ही डर रहता
मैं पेड़ हूॅं
है हवा छूती हुई जब मुझे जाती
ताज़गी और शीतलता सबको मिल पाती
प्रकृति की वस्त्रमाला से मैं सुशोभित
पर मनुज क्यों तेरे काल की मैं निमित्त
मैं पेड़ हूॅं
पर बिखरने लगा हूॅं मैं अब
मित्रता के बंधन मानव तू निभाएगा कब?
क्यों? क्रूरता पर है तुला
सिवा लाचारी के क्या मुझे मिला?
मत खेल प्रकृति से।
सिवा दर्द के क्या मिला उसे
मैं पेड़ हूॅं
मैं धरा हूॅं, मैं ही हूॅं ब्रह्मांड और प्रकृती हूॅं
ये सब मेरे ही निमहित है
बदल लू जो मैं करवट
फिर तेरा अस्तित्व कहा मिला
मैं पेड़ हूॅं
मैं सुंदर मनोहारी दृश्यपट देख जरा
मेरे ही रजतल में बैठ पाया तूने ज्ञान
गर न होती कलम मैं क्या रचता इतिहास?
जीवन का करु मैं संचार
मैं पेड़ हूॅं
तुझसे ही न करू मैं प्यार
औरो को भी जीवन देना
है मुझ पर कर्तव्य भार
शायद ये क़ुदरत का उपहार
फूट रहे है फिर तुझ पर गर्व की लाल कोपल डाली
है तेरा जीवन मुझ बिन शून्य खाली
फिर न सह पायेगा गर्म रक्त लाली
मैं पेड़ हूॅं
लोग मुझे वृक्ष, तरु, पादप और क्या क्या कहते है।।