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Prahlad mandal

Abstract Thriller

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Prahlad mandal

Abstract Thriller

मैं नहीं मानता हूं..

मैं नहीं मानता हूं..

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मैं नहीं मानता खुद को अधूरा

और ना ही खुद को पूरा मानता हूं....

मैं खुद को मध्य बिंदु पर रखा हुआ 

ना अच्छे से पूरा और ना ही 

बिल्कुल खाली ही मानता हूं.....


मैं खुद को अधूरा इसलिए मानता हूं

क्योंकि मैं किसी भी पेड़ को 

बिन मिट्टी के सहारे लगे नहीं देखा हूं...


और मैं खुद को पूरा भी 

इसलिए भी नहीं मानता हूं..

क्योंकि सामने बैठे किसी भी जंतु को 

चाहकर भी उनकी जरूरते पूरी करने के लिए

पेड़ अपने फल को उनके समक्ष लाने के लिए

तेज हवा की जरूरत होती हैं .. ठीक उसी प्रकार

हमें भी ज़रूरत पड़ती हैं कई चीज की...


मैं नहीं मानता सुविचार 

सिर्फ और सिर्फ मानव के पास होता हैं...

हां पक्षियां बोल नहीं पाती हैं समझाने के लिए

मनुष्य के जुवान के तरह

लेकिन अनुभव सवेरे से कराना शुरु कर देती हैं..

सूर्य के किरणों से पहले निवाला ढूंढने निकलकर

और सूर्य ढलते ही अपने झुंड के साथ

अपने बने बनाए घर में अपनों के साथ प्रेम बांटकर....


और मैं ये कदापि नहीं मानता कि

सफलता सिर्फ अकेले मिलता हैं...

अकेले गेहूं से आटा बनने की तों छोड़िए

गजूर भी उनमें आने के लिए

 नमी की भी जरूरत पड़ता हैं ...

तों बिन चक्की के घूरे आटा कैसे 

निकल सकता हैं....


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