मैं ने तो निमित्त रचा है
मैं ने तो निमित्त रचा है
कविताओं के स्वर्णिम युग का
सृजन के सुकोमल सुख का
काल के विकराल मुख का
संसार रुपी अनेकों युग का
मैं ने तो निमित्त रचा है
ये सारे के सारे प्रबंध वहीं हैं
उपबंध वही हैं, संबंध वही हैं
वही रस हैं, अलंकार वही हैं
उपमाएं वही हैं, छंद वही हैं
मैं ने तो निमित्त रचा है
मेरा ये एक स्वर है जो
पत्थर में जो, पर्वत में जो
मानव में जो, नदीयों में जो
पशुओं में और कंकड़ में जो
मैं ने तो निमित्त रचा है
अंकुरण की कल्पना हो
वेदना हो या चेतना हो
बुद्धि हो या अहंकार हो
प्रकाश हो या अंधकार हो
मैं ने तो निमित्त रचा है।