मैं मुसाफिर किस राह का
मैं मुसाफिर किस राह का


जिसने जीवन की, क्षण-भंगुरता, को पहचान कर
इस संसार की, नश्वरता, को जानकर ।
छोड़ दिया इससे मोह-माया का जाल
करने लगा, अनंत परमात्मा को पाने का प्रयास।।
"ये संघर्ष है, या वक्त इम्तेहान का
मैं मुसाफिर किस राह का ।।"
एक आया, वो अज्ञान, मौन।
फँस गया, देख, संसार की चका-चौंध ।।
उसने, निस्वार्थ भाव से, सबको अपना।
सारा, जीवन, सेवा में समर्पित कर डाला।।
"ये इंसान है, या कोई रूप अवतार का।।
मैं मुसाफिर किस राह का ।।"
सबसे अलग - सबसे निराला, उसका जिससे पड गया पाला।
दुनिया में ऐसा कोई बचा नहीं, जिसको, उसने ठग नहीं डाला।।
कोई चाहे जैसे रहे, खाये या भूखे मरे।
स्वार्थ-भाव, उसका अस्तित्व, मोंह से कहीं दूर परे।।
" नहीं कीमत, उसकी नजर में, किसी भी रिश्ते का।।
मैं मुसाफिर किस राह का ।।"