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Manoj Kumar Jha

Tragedy

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Manoj Kumar Jha

Tragedy

मैं हूँ किसान

मैं हूँ किसान

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मही का मैं हूँ 'मान' किसान।


सबकी भूख मिटानेवाला, मानव-जीवन का रखवाला,

निशिदिन करता काम खेत में, श्रमरस-धुन का हूँ मतवाला।

किरणों की आहट से पहले, होता सदा विहान।

मही का मैं हूँ ‘मान’ किसान।


श्रमसिंचित धरणी-तल अंकुर, बीजों से जो फूट रहे हैं,

मिट्टी-पानी-हवा-योग से, समाँ-दिव्य दिल लूट रहे हैं।

खेतों-खलिहानों में दमकें, फसलें स्वर्ण समान।

मही का मैं हूँ ‘मान’ किसान।


ध्यान-योग-जप अर्पित तुझको, माँ धरणी! कर गर्वित मुझको,

पैदावार बढ़ा तू इतनी, करूँ सतत् मैं हर्षित सबको।

अन्न बिना कोई क्यों तरसे, जबतक मुझमें प्राण।

मही का मैं हूँ ‘मान’ किसका।


अधनंगे तन में मन मेरा, ऋषियों-सा ही शक्त रहा है,

जग को अमिय पिलाता हूँ मैं, चाहे उल्टा वक्त रहा है।

मैं दधीचि-कुल का सुत त्यागी, करूँ अस्थियाँ दान।

मही का मैं हूँ ‘मान’ किसान।


निज माटी का चंदन कर लूँ, ‘मुनिया’ सोयी, वंदन कर लूँ,

‘भात-भात’ अंतिम स्वर उसके, हूक उठे हिय, क्रंदन कर लूँ।

कब जाके सत्ता जागेगी, कबतक लेगी जान!

मही का मैं हूँ ‘मान’ किसान।



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