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ARVIND KUMAR SINGH

Inspirational

4.5  

ARVIND KUMAR SINGH

Inspirational

मैं एक नारी हूँ

मैं एक नारी हूँ

2 mins
367


नाजुक सी मैं एक पंखुड़ी

तो कभी कठोर दयार हूं

कभी हूं मैं तूफानी बबंडर

तो कभी झूमती बहार हूं


शबनम सी ठंडक मुझमें

शमां सी जलना आता है

आगोश मेरा पाने को जब

हंसते हुये जल जाता है


जन्मदात्री होकर भी मैं

वजूद को लड़ती नारी हूं

भ्रम जीत का फैला है पर

मैं कदम कदम पे हारी हूं


शाप बना जीवन नारी का

जगह जगह पर मारी हूं

सबसे बडा़ अपराध मेरा

ये हुआ कि मै एक नारी हूं


पैदाइशी मैं वीरांगना पर

धीरज में मुझसा कोई नहीं

तिल तिल मुझको वो जलाऐं

जिनकी खातिर सोई नहीं


मेरा आंचल प्यारा तुमको

मेरी ही अदा तुझको भाये

जब जब मैं आजादी मांगूं

तू पिजड़़ों में रखना चाहे 


लक्ष्मी सरस्वती को पूजे पर

साक्षात पर अत्याचार करे

बन संवर जो घर से निकलूं

नजरों से रह रह वार करे


घर की इज्ज़त कहते हैं पर

बाजार में मुझको सजा दिया

कभी छोड दिया चौराहे या

बीबी बना के भगा दिया


अय्याशी तेरी फितरत में

पर ऋषियों सा ढोंग रचाऐ

नारी का तू अपमान करे

कमी भी उसी की बताए


इतना ही सांचाधारी है तो

क्यों तू कोठों पर जाता है

दिन के उजाले ढौंग रचाऐ

रातों को रंगीन बनाता है


तोहमतें हमेशा सहकर भी

मैंने आगे बढना नहीं छोड़ा

हर कदम मेरा रोका तूने

और विश्वास को मेरे तोड़ा


अपना हक जब भी मांगा

तब मैं एक नजर न भाई

लाखों प्रपंच रचा कैद कर

बेड़ियों की सौगात बिछाई


मुझसे रौनक घर बार हैं तेरे

मुझसे ही रौशन अंधियारे

फिर भी सताऐ तरह तरह

और तरह तरह मुझको मारे


भ्रूण से अस्तित्व तलक मेरी

हत्या की फिराक में रहता है

अबला पर अत्याचार कर

अपने को मर्द तू कहता है


निर्भया बन दिल्ली में मारी

हुजूम उभरा था बड़भारी

बदला नहीं आज भी कुछ

भेडिये अब भी वही शिकारी


गोरखपुर, शाहजहांपुर में

या हाथरस में मारी गई

अस्मत मेरी मिलकर लूटी

जुबान भी फिर काटी गई


आरोप अस्तित्व मिटाने पर

छेडख़ानी का बस लिखते हैं

रक्षक मिलकर भक्षकों संग

देखो सरे आम बिकते हैं


हर मौत के बाद जिंदा होती

मैं फिर से आगे बढती हूं

काम को जाती सहमी सी

आतंक के बीच में पढती हूं


लक्ष्मीबाई कभी रण चण्डी

मुझको फिर बनना ही पडा

अताताई था लूटने मुझको

जब भी सामने मेरे खडा


आशा लंता और स्रेया बन

मैंने संसार सुरों से सजाया

कल्पना चावला मैं ही बनी

जब दुनिया में नाम कमाया


बार बार लुटकर भी मैं

फिर से उठ खड़ी होती हूं

भीख दया की मांगू नहीं

किस्मत पर कभी न रोती हूं


लडाई मेरी नहीं किसी से

मुझे तो पहचान बनानी है

है पुरुष भी हमारा पूरक ही

बात तो मैंने ये भी मानी है


रोकेगा मुझको क्या कोई

मैं आसमान छूने आई हूं

हर तूफानी मंजर के बाद

फिर बहार बन के छाई हूं!


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