मैं एक मर्द हूँ...
मैं एक मर्द हूँ...
बयाँ नहीं कर सकता मैं अपने दर्द को
इसलिए कि मैं एक मर्द हूँ।
नही है इज़ाज़त मुझेअपने अश्क़ खुले आम बहाने की
इसलिए कि मैं एक मर्द हूँ।
बहुत आसान है कह देना कि
नही परवाह है मुझे ज़माने की
क्या जाने लोग ? कि
दिन -रात सोचता रहता हूँ
दो वक्त की रोटी कमाने की
इसलिए कि मैं एक मर्द हूँ।
बोलता नहीं तो न समझे
जज़्बात नहीं है मेरे दिल में
हाँ ! मैं हूँ ,एक मर्द
बुढ़ापा बूढ़े बाप का मुझे
सतात
ा है
देखकर माँ की झुकी कमर और
हाथों की झुर्रियाँ
मेरा दिल भी सहम जाता है
एक अनजाना डर
उनके बिझड़ने का बहुत रुलाता है ।
सिसकता हूँ मैं
भीतर ही भीतर पर
बाहर से मुस्कुराता हूँ
साथ मेरा भी छोड़ देते हैं अश्क़ मेरे पर
मैं उन्हें छिपाता हूँ
इसलिए कि मैं एक मर्द हूँ।