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Dr Priyank Prakhar

Abstract

4.0  

Dr Priyank Prakhar

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मैं आज कुछ कहना चाहती हूं

मैं आज कुछ कहना चाहती हूं

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मैं आज कुछ कहना चाहती हूं,

दो पल बस अपने बारे में,

छोड़कर सारे बंधन,

ये पाजेब ये सिंदूर ये कंगन,

उड़ना चाहती हूं तब तक,

जब तक हो ना जाऊँ चूर थक कर,

ढूंढना चाहती हूं,

थोड़ा सा अपना आकाश,

करना चाहती हूं खुद को तलाश,

खो गई है जो रिश्तों में बंट कर,

मां बहन पत्नी बेटी बन कर,

जीना चाहती हूं डट कर,

दो पल बस अपने लिए,

निकालना चाहती हूं,


लोग क्या कहेंगे

नहीं अब ये सोचना चाहती हूं,

जो सोचती आई थी अब तक,

सुनती रही हूं,

हर पल समाज की जो दस्तक,

कभी मां पिता पति भाई बनकर,

होकर खड़ा तनकर,

रोकने को मुझे,

टोकने को मुझे,

बांधने को हर हद तक,

बचपन से जवानी फिर बुढ़ापे तक,

पैरों पे जकड़ी रिवाजों की जंज़ीरें,


मां कहती थी चल धीरे धीरे,

मत हँस सबके सामने,

नहीं आएगा कोई तेरा हाथ थामने,

कभी बनकर पिता किसी को बुला कर

हाथों में उसके मेरा हाथ थमा कर,

उसको मेरा पति बना कर,

लगा कर मेरे मुंह पर ताले,

कर देता है मुझे उसके हवाले,

पति ही है अब संसार तेरा,

तुझे ही देखना है परिवार तेरा,


रख जिम्मेदारियां मेरे कंधों पर,

निकलता है पति अपने धंधों पर,

बना करके मेरी सीमा रेखा,

खबरदार जो तूने इसके पार देखा,

यही जंज़ीरें मुझे अब तोड़नी है,

रवायतें सारी मुझे छोड़नी हैं,

ये ताले मुझे अब खोलने हैं,

कुछ सच मुझे भी बोलने हैं,

ये सीमाएं मुझे अब लांघनी हैं,


उस पार मेरे हिस्से की चांदनी है,

जी कर देखो खुद के लिए भी,

बस दो पल,

करके देखो अपने आप से बातें,

बिताओ कभी साथ खुद के रातें,

पाने को वो एक नई नजर,

जिससे हो अभी तक बेखबर,

तब होगा तुम्हें ये पता,

कितना अलग है ये मजा,

पर लोग कहते हैं,

शायद रोकने को मुझ को,

खुद के लिए जिए तो क्या जिए,

ऐसे ही लोगों को,

मैं आज इतना ही कहना चाहती हूं।



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