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माटी की कसक

माटी की कसक

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अब भी मेरे गाँव की माटी मुझे बुलाती है

जब भी आए याद आँख खुद नम हो जाती है

बरस कई बीते है फिर भी कसक सताती है

अब भी मेरे गाँव की माटी मुझे बुलाती है


हरियल चने के खेत में जाकर बूट तोड़ के लाना

लहसुन मिर्च की चटनी के संग भुट्टे भून के खाना

उन सौंधे भुट्टों की खुशबू, आज भी आती है

अब भी मेरे गाँव की माटी, मुझे बुलाती है


आमों के बागों में जाकर, छुप-छुप आम चुराना

नून मिर्च और संगिन के संग, चटकारें ले खाना

खट्टी अमिया की खट-मिट्ठी, याद सताती है

अब भी मेरे गाँव की माटी, मुझे बुलाती है


भोर भए बापू के संग-संग, रोज़ खेत पे जाना

ऊषा की लाली में शीतल पवन झकोरे पाना

ओस में भीगी घास की सिहरन, आज भी आती है

अब भी मेरे गाँव की माटी, मुझे बुलाती है


खेत जोतते बाबा की वो आशा भरी निगाहें

माथे से झर, झर झर बहते पसीने की बरसातें

भीगे हुए गमछे की, खुशबू आज भी आती है

अब भी मेरे गाँव की माटी मुझे बुलाती है


माँ का दुलराना, झिड़कना और प्यार से मनाना

दाल भरी मीठी रोटी पे, धी की परत चढ़ाना

प्यार की वो बरसातें अब भी मुझे भिगाती है

अब भी मेरे गाँव की माटी मुझे बुलाती है


बरसों बाद जो गाँव गया तो गाँव हो गया गुम

गाँव की हद में मॉल-महल को देख के मैं गुमसुम

मॉल में दबी सिसकती माटी कराह सुनाती है

अब भी मेरे गाँव की माटी मुझे बुलाती है


खाट से लगे माँ बापू ने, रो- रो के हमें बताया

न तो मिली जमीन और, न रुपया हमने पाया

लोगों की साजिश आँखों से, लहू बहाती है

अब भी मेरे गाँव की माटी मुझे बुलाती है


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