माँ
माँ
बस नो रातें ही क्यों माँ की बातें
माँ का ही गुणगान हर क्षण हैं गाते
नवरातों के बाद माँ का मूल भूल क्यों जाते
मूल माँ का नारी शक्ति ये बात समझ न पाते
अबला बेचारी नारी ये अलंकरण खूब याद हैं आते
नारी का खुद से कमतर हैं जो सदा आकलन लगाते
ताड़ते नारी को और हाथ उसके फूल नजर हैं आते
पर अत्याचारी माँ के हाथों का त्रिशूल भूल हैं जाते
नो दिनों तक नवरुपों का आरती थाल हैं सजाते
माँ की ममता, दया, त्याग व बलिदान याद हैं आते
खाली अपनी झोली लेकर सब भरने उसको जाते
भरी हुई झोली से नारी को सुर्ख लाल आँख दिखाते
बीत जाते जब नव राते मूर्खों के सीने फूल हैं जाते
माँस मदिरा पर लगा विर
ाम ये हैवान थाम न पाते
अंदर हैं जो कीड़े इनके वे बाहर निकल हैं आते
क्योंकि नारी को तो ये है बस ताड़न का अधिकारी पाते
नारी से तो हैं ये बस दिल अपना बहलाना चाहते
भूल यह यथार्थ जाते नारी से ही तो वे धरा पे आते
कन्या पूजन का आडम्बर कर जन्म पे जो हैं पछताते
क्यों फिर नवरातों में जोर जोर से माँ के जयकारे लगाते
तकलीफ उठा के भी जिसने नो माह कोख में ले तुमको काटे
क्यों फिर उसके चार दिन भी बुढ़ापे के तुमको कांटे जैसे काटे
कविता नहीं दर्द है ये युद्धवीर का लोग जाने क्यों समझ इसे न पाते
बस नो दिन ही क्यों हो माँ की नवराते
हर दिन हो नारी का दिन हर रातें माँ की रातें