माँ
माँ


माँ के पास
कहाँ वक़्त था
बिठाती अपने पास
पकड़ती मेरा हाथ
लिखवाती अक्षर-अक्षर,
रटाती गिनती पहाड़े,
माँ ने तो सिखाया
चक्की चलाते-चलाते पढ़ना,
आटा गूंधते-गूंधते,
शब्दों को गूंध-गूंधकर करना
वाक्य-विन्यास,
चूल्हे पर रोटियों के साथ-साथ
कड़े वक़्त की आंच पर
करना कोई नव-सृजन,
कहीं भी आते-जाते,
ऊन के गोलों और सलाई के साथ
सपनों को बुनना,
नर्म गर्माहट लिये सपने
कैंची और सुई से
फ़टे उधड़े को सिलते हुए
सिखाया माँ ने
जतन से जोड़े रखना रिश्तों को
धीमें-धीमें स्वर में
सुना के लोरी, तो कभी कोई कहानी,
सिखाया धीरज से सुनना, समझना
माँ के पास कहाँ था वक़्त
सिखाने का, समझाने का,
बैठाकर गोद में अपनी,
फ़िर भी सिखा दिया,
हर हाल में जीना,
हर पल को जीना,
अपने लिये, अपनों के लिये