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Aarav Singh

Tragedy

4  

Aarav Singh

Tragedy

"मां वो तुम्हारी घर वाली रोटी"

"मां वो तुम्हारी घर वाली रोटी"

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कमाने तो लग गया हूं पर,

बड़े शहरों में भी बस सुकून ही ढूंढता हूं..

जाता हूं जब बड़े होटलों में खाने, तो 

मां वो तुम्हारी घर वाली रोटी ही ढूंढता हूं...


दूसरे शहर में रह तो लेता हूं पर, 

कोई अपनों सा लगता ही नहीं..

कोशिश तो रोज करता हूं की दिल लगा लूँगा यहाँ पर,

मां वो तुम्हारी घर वाली रोटी का एहसास कहीं मिलता ही नहीं...


बातें बे-हिसाब करती थी,

वो कुछ कहते-कहते रो पड़ती थी...

तुमसे वो दो मिनट बात वाला सुकून कहीं दिखता ही नही,

मां वो तुम्हारी घर वाली रोटी किसी दुकान में बिकता ही नही...


दूसरे शहर में रहकर आज अपने शहर को याद करता हूं,

जहां झगड़ता था रोज अपनो से आज अपने उस घर की बात करता हूं..

यहां रोज दस तरह के पकवान खाता हूं पर,

मां वो तुम्हारी घर वाली एक रोटी के स्वाद को भी तरसता हूं...


मुझे फिर से वही घर वही सुकून चाहिए,

मुझे फिर से अपना गांव अपने लोग चाहिए...

जिम्मेदारियों को भी निभाऊंगा, घर की जरूरतों को भी उठाऊंगा बस मुझे फिर से,

वही कान खींचने वाला भाई बड़ा और बहन मोटी चाहिए, 

मां मुझे फिर से वो तुम्हारी घर वाली रोटी चाहिए,

मां वो तुम्हारी घर वाली रोटी चाहिए...


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