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Supriya Bikki Gupta

Abstract Others

4.8  

Supriya Bikki Gupta

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माँ की लोरी

माँ की लोरी

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गोदी में प्यार की समा लेती हैं कुछ ऐसे,

ममता के आँचल में, सुकून मिल रहा हो जैसे, 

प्यारी सी थपकी जब सिर को सहलाए, 

तड़पते मन की जैसे, हर प्यास बुझ जाए। 


धुन हैं प्यार की और स्नेह की डोरी,

खिल उठता हैं मन, 

जब भी कानों में पड़े "माँ की लोरी।"


गुनगुनाते होंठों से, 

यूँ ही सिर को हमारे, सहलाना उनका, 

बात कोई भी हो, सब ठीक हैं, कह मुसकाना उनका

एक ताकत सी भर देती हैं आज भी, 

जादू सा असर करती हैं, आज भी, 


कहते हैं, "माँ की लोरी " तो बचपन की बात हैं, 

लेकिन ये वो एहसास है, 

जो हर घड़ी साथ है। 


उम्र का पड़ाव हो कोई भी, 

माँ का आँचल याद आता है,          

बचपना नहीं जाता, बचपन चला जाता है, 

वक्त भी वो बहुत सुनहरे होते हैं, 

जब "माँ की लोरी" से सपने हमारे गहरे होते है। 


खुशनसीब है वो, 

खिला हैं बचपन जिनका, साये में माँ के, 

बहुत हैं जो अनजान हैं, आज भी, 

इस एहसास से प्यार के,


दर्द उनका कोई न जाने, 

जिनके पास ये डोरी नहीं, 

किमत समझे वही इसकी, 

जिनके पास "माँ " और "माँ की लोरी " नहीं। 

 


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