लफ्ज़ क़लम के
लफ्ज़ क़लम के
क़लम चीख़ेगी तो फिर कहानी पुरानी निकलेगी
गम-ए-हयात फिर लफ्ज़ो के ज़ुबानी निकलेगी
फिर से किसी दिन हुस्न के हाथों हार बैठेगे हम
और फिर से नाकाम इश्क़ में ये जवानी निकलेगी
उसकी शर्तों में साल दर साल इजाफ़ा होता गया
मुझे क्या पता था की वो इतनी सयानी निकलेगी
हम नाफरमान थे हमने कहाँ सुनी बड़ों की कभी
हाँ किसी ना किसी दिन तो ये मनमानी निकलेगी
तुम्हारा लिखना तो 'अज़हर' खुद को समेटना था
अंदाजा कहाँ था दुनिया तुम्हारी दीवानी निकलेगी।
