बदलते हालात का जायज़ा
बदलते हालात का जायज़ा
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इस क़दर गमगीन हूँ कि सिसकियाँ नहीं आतीं
मेरे आँगन में खेलने को अब बच्चियाँ नहीं आतीं
इस से बढ़कर फूलों की बेकदरी क्या होगी
की भरे बाग़ो में भी अब तितलियाँ नहीं आतीं
शहर चकाचौंध में डूबा रहा दिन के उजालों में
और गाँव में रात गए बिजलियाँ नहीं आतीं
मेरे घर का हर एक कोना वाकिफ़ है अंधेरों से
ये वो मकान है जहाँ कभी रोशनियाँ नही आतीं
वो याद करता है मुझे अब मुख़्तसर से वक्त के लिए
वो मुसलसल आने वाली अब हिचकियाँ नहीं आतीं
बेटों ने जब से अपनाये हैं तौर-तरीके शहर के
माँ के नाम अब सालो-साल चिट्ठियाँ नहीं आतीं।
