इंसान की मजबूरियाँ
इंसान की मजबूरियाँ
यूँ तड़के ना आँख मेरी खुली होती
ख़्वाहिशें ना होती ना मजबूरी होती
परदेश में भला ये कैसे सोचता मैं
घर लौटते तो सामने अम्मी होती
जलते हैं हाथ और बनती है रोटियाँ
घर पर होते तो हाथ में पट्टी होती
किसी पर्व पर दफ्तर में सोचता मैं
बच्चा होता तो यक़ीनन छुट्टी होती
उजाले में निकले तो अंधेरे में लौटे
इस मुक्तसर वक्त में खाक शायरी होती
बस अपनी ही फिक्र में खोया आदमी
इंसानियत रहती तब न ज़िन्दगी होती
दिल बेजान कैद हैं चलते जिस्म में
ज़िन्दा लोगों से कहाँ खुदकशी होती।
