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Azhar Shahid

Abstract

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Azhar Shahid

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इश्क़ का दर्द

इश्क़ का दर्द

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माज़ी-ए-गुफ्तगु के अब कितने ही माने निकलेंगे 

इलज़मात के सिलसिले फिर पुराने से पुराने निकलेंगे


शाम होने को है अब लाओ दो मेरी तन्हाई वापस 

सुबह फिर किसी रोते हुए बच्चे को हँसाने निकलेंगे


तुम मयस्सर भी होगी तो किसी एक लम्हे की खातिर 

और फिर तुम्हारे बग़ैर मेरे कितने ही ज़माने निकलेंगे


अच्छा लाओ आज आख़िरी बार शराब हलक़ से उतारूँ 

वादा रहा की कल से जरूर खुद को बचाने निकलेंगे


फ़कीर वो बना जिस ने जान ली ज़िन्दगी की हकीक़त 

यूँ अक्ल के अंधों से थोड़ी न कोई कारनामे निकलेंगे 


तुम्हारे साथ इश्क़ में न जाने कितने गुनाह किए गए 

एक दिन तुम्हें अकेला छोड़कर सब कमाने निकलेंगे।


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