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Prashant Kaul

Abstract

0.7  

Prashant Kaul

Abstract

लो और एक दिन बीत गया ।।

लो और एक दिन बीत गया ।।

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लो और एक दिन बीत गया

सुलझाते उन उलझनों को

जो प्रत्यक्ष में कभी थी ही नहीं 


करते हुए उस काम को 

जिसमें दिमाग ज्यादा 

और दिल कभी लगा ही नहीं

जीते उस जिंदगी को 

जिसमें सांसे तो ली 

पर लम्हें कभी जिए ही नहीं


पहनें उस लिबास को 

जिसमें बस घुटन थी 

राहत तो कभी मिली ही नहीं

जानते हुए उन लोगों को 

जो दिन भर साथ रहने के बाद भी 

अपने तो अभी हुए ही नहीं


भागते उन ख्वाबों के पीछे 

जो अब भी कहीं जिंदा हैं 

पर पूरे कभी हुए ही नहीं

सुनते हुए वो सब बातें 

जिनका शायद कोई मायने नहीं 

और मीठी कभी लगी ही नहीं


हंसते हुए उन किस्सों पर 

जो किस्से तो रहे 

पर जज़्बात कभी हुए ही नहीं

अब तो बस उस दिन का इंतजार करते हैं

जो बीते पर इत्मीनान से।


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