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Prabhanshu Kumar

Drama Tragedy

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Prabhanshu Kumar

Drama Tragedy

लेबर चौराहा और कविता

लेबर चौराहा और कविता

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सूर्य की पहली किरण

के स्पर्श से

पुलकित हो उठती है कविता

चल देती है

लेबर चौराहे की ओर

जहां कि मजदूरों की

बोली लगती है।


होता है श्रम का कारोबार

गाँव-देहात से कुछ पैदल

कुछ साइकिलों से

काम की तलाश में आये

मजदूरों की भीड़ में

वह गुम हो जाती है

झोलो में बसुली,

साहुल हथौड़ा

और अधपकी कच्ची रोटियाँ

तरह-तरह के श्रम सहयोगी औजार

देख करती है सवाल

सुनती है विस्मय से

मोलभाव की आवाजें !


देखती है

आवाजों के साथ मुस्कराता

शहर का असली आईना

कविता न उठाती है हथियार

न लहराती है परचम

वह धीरे-धीरे

मजदूरों की हड्डियों में समाकर

कैलशियम बन जाती है...!


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