क्या क़रोना क़हर है?
क्या क़रोना क़हर है?
यह कैसा शहर है ?
सन्नाटा हर पहर है
ना कोई चहल पहल है
क्या कुदरत का कोई कहर है ?
क्या किसी बीमारी का टोना है?
यह कैसा सब का रोना है ?
यह कैसी अनहोनी का होना है ?
यह कैसा चैन का खोना है ?
इंसान ! तू हुआ इतना मशगूल,
तेरे ईमान पे पड़ गयी धूल,
शुग़ल में तू रब को गया भूल ।
गिरा दिया है तू अपना ही मूल।
गुनाह इस कदर बढ़ते गए
घमंड इस तरह चढ़ते गए
आपस में यूँ लड़ते रहे
धर्मों-ईमान, बदनाम करते गए !
ज़मीर कहता गया यूँ करोना
शैतान, भटकाता गया कि दरोना।
रब ने फिर उनकी याद दिलायी
क़हर बरसाया क़रोना !
क़रोना का क़हर बरस रहा है
इलाज को तू अब तरस रहा है ।
भाई, भाई को डँस रहा है
झूठे तकब्बुर में तू धँस रहा है !
लौट जा ! राहे-ईमान पे तू !
रब से माफ़ी माँग ले तू !
तलब रहमत उनकी करले तू !
वर्ना बहुत पछताएगा तू !!
